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भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5341
आईएसबीएन :000

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आदि काल से रामोदय तक का भारतीय इतिहास...

Bharatvarsh Ka Sankshipt Itihas a hindi book by Gurudutt - भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास - गुरुदत्त

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं। विज्ञान की पृष्ठभूमि पर वेद, उपनिषद् दर्शन इत्यादि शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया तो उनको ज्ञान का अथाह सागर देख उसी में रम गये। वेद, उपनिषद् तथा दर्शन शास्त्रों की विवेचना एवं अध्ययन अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत कराना गुरुदत्त की ही विशेषता है।
उपन्यासों में भी शास्त्रों का निचोड़ तो मिलता ही है, रोचकता के विषय में इतना कहना ही पर्याप्त है कि कि उनका कोई भी उपन्यास पढ़ना आरम्भ करने पर समाप्त किये बिना छोड़ा नहीं जा सकता।

सम्पादकीय निवेदन

मनीषि स्व० श्री गुरुदत्त ने इस ग्रन्थ की रचना लगभग सन् 1979-80 में की। इसकी पाण्डुलिपि को पढ़ने से तथा उनके जीवनकाल में उनसे परस्पर वार्तालाप करने से यह आभास मिलता था कि वे भारतीय स्रोतों के आधार पर भारत वर्ष का प्रामाणिक इतिहास लिखना चाहते थे। पाश्चात्य इतिहास-लेखकों की पक्षपातपूर्ण एवं संकुचित दृष्टि से लिखे गए इतिहास की सदा उन्होंने भर्त्सना की। वे बार-बार यही कहा करते थे कि ‘‘भारतवर्ष का प्रामाणिक इतिहास लिखा जाना चाहिए।’’
अन्यान्य ग्रंन्थों की रचना करते हुए उन्होंने इतिहास पर भी लेखनी चलानी आरम्भ की और मनु आरम्भ कर राम जन्म तक का ही वे यह प्रामाणिक इतिहास लिख पाए थे कि काल के कराल हाथों ने उन्हें हमसे छीन लिया।

प्रस्तुत पाण्डुलिपि के शीर्ष में उन्होंने ‘भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास’ लिखा है। इससे तथा पांडुलिपि के बीच-बीच में अनेक स्थानों पर रामोपरान्त के राज्यों और राजाओं के उल्लेख के समय ‘‘इस विषय पर हम यथास्थान विस्तार से लिखेंगे’’, इस संकेत से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी इच्छा पूर्ण इतिहास लिखने की थी। काल ने भारत की भावी पीढ़ी को उनके इस उपहार से वंचित कर दिया। कदाचित् यही नियति को स्वीकार होगा।

आर्यावर्त्त के इस संक्षिप्त इतिहास में उन्होंने सृष्टि के आरम्भ की अवस्था का कुछ उल्लेख किया है और फिर अन्तिम जलप्लावन के समय मत्स्य की सहायता से बचे मनु और सप्तर्षियों से उन्होंने इस इतिहास को आरम्भ किया है। उनकी, तथा हमारी भी यही मान्यता है कि सृष्टि का आदिकालीन और तदुपरान्त सतयुग कालीन इतिहास कहीं किसी भी रूप में उपलब्ध नहीं है। न भग्नावशेषों के रूप में और न साहित्य के रूप में। अनेक जलप्लावनों में वह विनष्ट हो गया है। वैवस्वत मन्वन्तर के उपरान्त का जो साहित्य बच पाया है, उसके आधार पर ही ग्रन्थकारों और शास्त्रकारों ने इतिहास की रचना की है। उसी का आश्रय हमारे विद्वान लेखक ने भी लिया है।

भारतवर्ष के भावी प्रामाणिक इतिहास लेखकों के लिए स्व० श्री गुरुदत्त जी की यह धरोहर प्रेरणा का स्रोत बन सकती है। इसके आधार पर यदि कोई इतिहास एवं लेखक भारतवर्ष का प्रामाणिक इतिहास लिखना चाहे तो उसे यह जानने में सुविधा होगी कि आपने इस सुकार्य के लिए उसको किस-किस ग्रन्थ अथवा शास्त्र का आश्रय लेना चाहिए। आज तक के संकुचित दृष्टिकोण से लिखे गए इतिहास के प्रत्याख्यान की प्रक्रिया भी मनीषि लेखक ने अपने इस ग्रन्थ से स्पष्ट कर दी है। यह भी भावी लेखकों के लिए सहायक सिद्ध होगा।

निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि ‘‘यह जितना भी और जो कुछ भी है, बड़ा ही रुचिकर और प्रेरणास्प्रद है।’’ इतिहासज्ञ, इतिहासकार, इतिहास के अध्यापक और अध्येता इससे निश्चित ही लाभान्वित होंगे।
इस पाण्डुलिपी को संशोधित करने की क्षमता मुझमें नहीं है, यह मैं भली भाँति जानता हूँ। तदपि मूल लेखक के अभाव में जो कुछ भी मैं इसमें संशोधन कर पाया हूँ, वह उसके सान्निध्य में बैठकर अर्जित इतिहास-ज्ञान के आधार पर ही सम्भव हो पाया है। अतः यदि कहीं कोई त्रुटि रह गई हो तो उसे मेरा दोष अथवा त्रुटि माना जाय, लेखक का नहीं।

विदुषां वशंवादः
अशोक कौशिक

वसन्त पंचमीः 2047

पूर्वपीठिका 1


पश्चाचात्य लेखकों का यह कहना कि भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास नहीं मिलता, उनकी अज्ञानता का ही सूचक है। इस अज्ञान का कारण यह है कि जब यूरोपियन लोग भारत में आए तो उनका सम्पर्क भारत के ऐसे लोगों से हुआ जो स्वयं कुछ पढ़े-लिखे नहीं थे। भारत के ब्राह्मण अपनी मूर्खता अथवा संकीर्णता के कारण इन विदेशियों से अपने शास्त्र और ज्ञान को पृथक् रखने का यत्न करते रहे। यहाँ के लोग इन आचारहीन विदेशियों को नीच, अछूत और म्लेच्छ मानते थे। इस कारण उनको ज्ञान के भारतीय ग्रन्थों का परिचय भी नहीं दिया।

इसका एक कारण यह भी था कि भारतवासी इतिहास लिखते तो थे, परन्तु उनके इतिहास लिखने का उद्देश्य वह नहीं था जो कि पाश्चात्य लेखकों का है। यूनान, रोम, मिस्र, फ्रांस, इंग्लैण्ड इत्यादि देशों में वहां के राजा-रईसों, जमींदारों तथा विजेताओं द्वारा इतिहास लिखने के लिए कुछ लोग नियुक्त किए जाते थे। परिणामस्वरूप के इतिहास उन राजा-रईसों की प्रशंसा में और उनकी रुचि अनुसार ही लिखे जाते थे। भारतवर्ष में यह प्रथा नहीं थी। यहां के लेखक नगरों और

राजा-महाराजों के दरबारों में नहीं रहते थे। वे प्रायः वनों में अपने आश्रमों में रहते और अपना पठन-पाठन का उद्देश्य राजा-महाराजाओं को प्रसन्न करना नहीं वरन् जन-साधारण के ज्ञान की वृद्धि करना होता था। जन-साधारण को इतिहास से क्या शिक्षा लेनी चाहिए, उन्हें यही अभिप्रेत था। इस कारण भारतीय लेखक केवल ऐतिहासिक घटनाओं को ही लिख देने से संतोष नहीं करते थे। वरन प्रत्येक घटना का कारण और उस घटना से उत्पन्न परिणाम का दर्शन आवश्यक समझा जाता था।
उदाहारणार्थ, वाल्मीकि जी लिखते हैं कि जब राजा दशरथ सन्तान के लिए विचार करने लगे कि रावण और राक्षस राज्य, जो उस समय महान् शक्तिशाली हो गया था, वह अत्यन्त अत्याचार और अनाचार करने लगा है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि केवल एक रावण ही दोषी नहीं था, वरन् उसके नाना के परिवार के लोग रावण के सहायक और सम्मतिदाता माली, मुराली और माल्यवान ने भी भारी अनर्थ रचाया था। अतः देव, गन्धर्व और ऋषि, जो यज्ञ पर आए हुए थे, वे केवल रावण की ही बात नहीं कर रहे थे, वरन् लंका में राक्षस-राज्य की भी चर्चा चला रहे थे।

मंदोदरी के पति रावण से पहले वहां माल्यवान इत्यादि राजा थे और वे भी राक्षस कहाते थे। उनके उपरान्त लंका का राजा रावण हुआ और फिर राम-रावण युद्ध के उपरान्त लंका का राजा विभीषण बनाया गया था। विभीषण को राक्षस नहीं कहा गया।

अतः दशरथ के पुत्र्येष्टि यज्ञ के समय जब विद्वान् लोग विचार करने लगे तो यही विचार हो रहा था कि लंका का राजा रावण घोर तपस्या से महान् शक्ति-शाली हो गया है। वह भले लोगों को बहुत कष्ट देने लगा है। तपस्या से अभिप्राय यही लेना चाहिए कि कार्य करने में कुशलता प्राप्त कर चुका था। विचार यह किया जा रहा था कि उसका निराकरण कैसे किया जाए।
रावण और उससे पूर्व माल्यवान, माली और सुमाली बलशाली कैसे हो गए थे ? यह कहा जाता है कि उन्होंने भी घोर तपस्या की थी। उस तपस्या से बल का संचय किया था।
जब हम यह पढ़ते है कि जर्मनी सन् 1920-33 में अति दुर्बल राज्य था और सन् 1933 से सन् 1938 में यह यूरोप में एक महान् शक्तिशाली राज्य बन गया तो यह भली भाँति समझ में आ सकता है कि रावण भी अपने काल में कैसे तपस्या से अजेय हो गया होगा। उसने सैन्यशक्ति का संचय किया था और उस शक्ति से वह मार-धाड़ करता हुआ। देवलोक तक चला गया था।
देवलोक के वर्णन में ऐसा प्रतीत होता है कि यह उत्तरी ध्रुव के समीप एक देश था। सम्भवतः आजकल का उत्तरी मंगोलिक अथवा अलास्का आदि स्थान हो।
लंका के अधिपति रावण को निस्तेज करने की योजना उस यज्ञ के समय बनाई जा रही थी। इस योजना में राजा दशरथ सम्मिलित नहीं थे। देव, गन्धर्व ऋषि-मुनि बैठकर योजना बनाते रहे।

यह कहा गया है कि उनकी गोष्ठियां ब्रह्मा जी की उपस्थिति में हुईं। ब्रह्मा देवताओं के गुरु थे। प्रभु (परमात्मा) का चिन्तन करने पर उनको आभास हुआ कि विशिष्ट औषध देवलोक के वैद्यों से तैयार कराई जाए और उसे इस यज्ञ में दशरथ की रानियों को खिलाया जाए। ऐसा ही किया गया और इसके फलस्वरूप कौशल्या के गर्भ में राम तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण विशेष गुणों वाले बालक उत्पन्न हुए।
इसमें इतिहास के साथ ही लोक-कल्याण के लिए, ऐतिहासिक घटनाओं का कारण और उद्देश्य भी वर्णन किया गया है।
बीसवीं सदी में उत्पन्न हुए हिटलर में विशेष बुद्धि और प्रभाव के उत्पन्न होने का भी यदि कारण वर्णन कर दिया जाता तो उसकी भी रावण की तपस्या से तुलना की जा सकती थी।

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